Class 9th History

Class 9th History Chapter Wise Short Long Type Question | इतिहास की दुनिया चैप्टर नाम- “वन्य समाज और उपनिवेशवाद (Tribal Society and Colonialismका प्रशन


Class 9th – कक्षा 9वीं

विषय – इतिहास की दुनिया

Short Long Question (लघु दीर्घ उत्तरीय प्रश्न)

चैप्टर का नाम- वन्य समाज और उपनिवेशवाद (Tribal Society and Colonialism


लघु उत्तरीय प्रश्न ⇒


1. वन्य समाज की राजनीतिक स्थिति पर प्रकाश डालें। 

उत्तर⇒ भारत की लगभग बाइस से पच्चीस प्रतिशतं भूमि वनों से आच्छादित है, जहाँ वन्य जातियाँ एवं जनजातियाँ निवास करती हैं। संभवतः ये लोग भारतीय प्रायद्वीप के निवासी हैं। इसीलिए उन्हें “आदिवासी” कहा जाता है। अठारहवीं शताब्दी में वन्य समाज कबीलों में बँटा था। सुरक्षा की दृष्टि से जनजाति एक मुखिया के तहत संगठित था। मुखिया का कर्त्तव्य कबीला को सुरक्षा प्रदान करना था। जनजातियों का मुखिया बने रहने के लिए उनका युद्ध कौशल में निपुण और सुरक्षा देने में सक्षम होना अनिवार्य था। इनकी स्वयं की शासन प्रणाली थी। शासन प्रणाली में सत्ता का विकेन्द्रीकरण किया गया था । परम्परागत जनजातीय संस्थाएँ वैधानिक, न्यायिक तथा कार्यपालिका शक्तियों से निहित थीं। इनका संचालन मुखियाओं द्वारा किया जाता था। धीरे-धीरे ये मुखिया कबीलों पर अपना अधिकार जमाना शुरू कर दिए। औपनिवेशिक शासन काल में अंग्रेजों द्वारा प्रलोभन दिए जाने के कारण अधिकांश मुखिया अंग्रेजों के हिमायती होने लगे। वे कठोरता से राजस्व वसूली करने में उनका साथ देने लगे। कालान्तर में जब राजनीतिक दृष्टिकोण से आदिवासियों का शोषण किया जाने लगा तब उन्होंने समाज के लोगों का भी साथ दिया।


2. वन्य समाज का सामाजिक जीवन कैसा था ? 

उत्तर⇒ वन्य समाज (आदिवासी) के लोग सीधे-सीधे और सरल प्रकृति के थे। आमतौर पर वे स्वयं को शेष समाज से अलग रखते थे। इनके जीवन की प्रायः सभी आवश्यकताएँ वनों से ही पूरी हो जाती थीं। खाने के लिए वनों से कन्द-मूल, फल और अपने द्वारा उपजाए गए अनाज से इनके भोजन की आवश्यकताएँ पूरी हो जाती थीं। ईंधन, लकड़ी, घरेलू सामग्री, जड़ी-बूटी, औषधियाँ, पशुओं के लिए चारा और कृषि औजारों की सामग्री उन्हें वनों से ही प्राप्त हो जाती थीं। अतः इनका सामाजिक जीवन पूर्णतः व्यवस्थित था। जंगल के फूल-पत्तों से ही लड़के-लड़कियाँ अपना श्रृंगार करते थे। वन्य समाज की महिलाएँ अपने समाज में पूर्णरूपेण स्वच्छन्द थीं और जीविकोपार्जन में पुरुषों का हाथ बँटाती थीं। उनका शौक और मनोरंजन का साधन पशु-पक्षियों का शिकार करना था। नाच और गाना इनका महत्त्वपूर्ण शौक था। सरहुल इनका सबसे महत्त्वपूर्ण पर्व था। परन्तु औपनिवेशिक शासनकाल से इनके सामाजिक जीवन में बदलाव आने लगा। अंग्रेजों ने उनके सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप किया। अपने आर्थिक लाभ के लिए अंग्रेजों ने कबीले के सरदारों को जमींदार का दर्जा दे दिया । वन्य समाज के अन्दर ईसाई मिशनरियों के घुसपैठ को बढ़ावा दिया गया । फलस्वरूप उनकी सामाजिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गयी।


3. अठारहवीं शताब्दी में वन्य समाज का आर्थिक जीवन कैसा था ? 

उत्तर⇒ अठारहवीं शताब्दी में वन्य समाज के आर्थिक जीवन का मुख्य आधार कृषि था। वे स्थान बदल-बदलकर ‘घूमंतु’, ‘झूम’, या पोडू विधि से खेती करते थे। वन्य समाज में कृषि के अलावा अन्य उद्योग-धन्धे का भी प्रचलन था । वे हाथी दाँत, बाँस, मसाले, रेशे, रबर आदि के व्यापार के साथ-साथ लाह तैयार करने का काम भी करते थे। वे लोग तसर उद्योग भी करते थे । वनों में या उनके आस-पास रहने वाले बहुत से आदिवासी लोग जंगली लकड़ी कटाई तथा छोटे-मोटे पशु-पक्षियों के शिकार करके भी जीवनयापन करते थे।


4. अठारहवीं शताब्दी में ईसाई मिशनरियों ने वन्य समाज को कैसे प्रभावित किया ? 

उत्तर⇒ वन्य समाज प्रारंभ से ही अहस्तक्षेप की नीति के पोषक थे। वे किसी भी प्रकार के बाहरी हस्तक्षेप के विरोधी थे। अंग्रेजों ने वाणिज्यिक उपनिवेशवादी नीति का पालन करते हुए जनजातीय क्षेत्रों में प्रवेश करने का प्रयास किया। परन्तु लम्बे समय तक वे सफल नहीं हो सके। अब अंग्रेजों ने आदिवासियों को शिक्षा देने और सभ्य बनाने के उद्देश्य से ईसाई मिशनरियों का घुसपैठ जनजातीय क्षेत्रों में कराया। फलतः उनके प्रवेश करने का एक उचित माध्यम मिल गया। आगे चलकर ये ईसाई पादरी आदिवासी धर्म एवं संस्कृति की आलोचना करने लगे। साथ ही उनका धर्म परिवर्तन करना शुरू कर दिए। बड़ी संख्या में आदिवासियों ने अपना धर्म परिवर्तन कर ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया और अपनी स्थिति में सुधार की । शिक्षित होने से उनकी स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन तो हुआ, परन्तु वे अपने अन्य भाइयों से नफरत करने लगे। आदिवासियों ने इसे अपने सामाजिक और धार्मिक जीवन में अतिक्रमण समझकर इसका विरोध करना शुरू किया। इस परिस्थिति में वन्य समाज में व्याप्त धार्मिक भावनाओं ने कई क्रांतियों और नेताओं को जन्म दिया।


5. ‘भारतीय वन अधिनियम’ का क्या उद्देश्य था ? 

उत्तर⇒ अंग्रेजों ने 1865 में ‘भारतीय वन अधिनियम पारित किया। इसका मुख्य उद्देश्य जंगल को लकड़ी उत्पादन से सुरक्षित करना था । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए आदिवासियों के लिए पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध लगा दिया गया। फलत: आदिवासियों के आर्थिक और सामाजिक जीवन प्रभावित हुआ। वास्तव में अंग्रेजों का उद्देश्य वन क्षेत्र पर अधिकार जमाना था। भारतीय वन अधिनियम के अनुसार “वैज्ञानिक वानिकी” की शुरुआत की गई। शाही सेना के आवागमन तथा औपनिवेशिक व्यापार के लिए भारत में रेल लाइनों की जरूरत थी। रेल पटरियों के लिए लकड़ी की भारी मात्रा में जरूरत थी। इस दौरान बड़ी तादाद में पेड़ काटे गये। वैज्ञानिक वानिकी के नाम पर पेड़ों की कटाई और पशुओं को चराने जैसी गतिविधियों पर पाबन्दी लगा दी गई। इस अधिनियम में 1878 और 1927 में संशोधन कर वनों को आरक्षित, सुरक्षित एवं ग्रामीण तीन श्रेणियों में बाँट दिया गया।


6. ‘चेरो’ विद्रोह से आप क्या समझते हैं ? 

उत्तर⇒ अठारहवीं शताब्दी के पहले तक जनजातियों का सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक जीवन सभी व्यवस्थित थे । परन्तु अठारहवीं शताब्दी के अन्त तक वे औपनिवेशिक शासन के शिकार होने लगे। इसके विरोध में उन्होंने कई विद्रोह भी किये। इन्हीं विद्रोहों में से एक विद्रोह “चेरो विद्रोह” भी था। बिहार के तत्कालीन पलामू क्षेत्र में चेरो जनजाति के लोग रहते थे। उन्होंने अपने राजा के द्वारा किये जा रहे अन्याय तथा शोषण के विरुद्ध विद्रोह किया। उस समय वहाँ का तत्कालीन राजा चुड़ामन राय था । अंग्रेजों की शोषण करने की नीति के पोषक राजा के खिलाफ भूषण सिंह नामक व्यक्ति के नेतृत्व में चेर जनजाति के लोगों ने 1800 ई० में खुला विद्रोह किया। राजा की सहायता करने के लिए अंग्रेजी सेना बुलायी गयी। कर्नल जोन्स के नेतृत्व में आयी सेना ने इस विद्रोह को कुचल दिया। चेरों के नेता भूषण सिंह पकड़ा गया। 1802 में उसे फाँसी दे दी गयी ।


7. ‘तमार’ विद्रोह क्या था ? 

उत्तर⇒ बिहार के तत्कालीन छोटानागपुर क्षेत्र में उरांव जनजाति के लोग रहते थे। अंग्रेजों ने जनजातीय क्षेत्रों में प्रवेश करने का प्रयास किया । जनजातीय क्षेत्रों में प्रवेश करने को अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे प्रयासों का आदिवासियों ने बलपूर्वक तथा हिंसात्मक तरीकों से विरोध किया। इसी क्रम में सन् 1789 में छोटानागपुर के उरांव जनजाति ने जमींदारों के शोषण के विरुद्ध आन्दोलन किया। इतिहास में यह ” तमार विद्रोह” के नाम से जाना जाता है। यह विद्रोह 1794 तक चलता रहा। परन्तु जमींदारों ने अंग्रेजों की सहायता से इस विद्रोह को बहुत ही क्रूरतापूर्ण ढंग से दबा दिया ! परन्तु, इसके बावजूद भी विद्रोह शान्त नहीं हुई । आगे चलकर उरांव जनजाति का विरोध मुंडा और संथाल जनजाति के साथ मिलकर प्रदर्शित हुआ ।


8. ‘चुआर’ विद्रोह के विषय में लिखें। 

उत्तर⇒ चुआर जनजाति तत्कालीन बंगाल प्रांत के मिदनापुर, बाँकुड़ा, मानभूम आदि क्षेत्रों में पायी जाती थी। अंग्रेजों की औपनिवेशिक लगान व्यवस्था के विरुद्ध इन लोगों में भी असंतोष था । अतः मिदनापुर में स्थित करणगढ़ की रानी सिरोमणी के नेतृत्व में चुआरों ने विद्रोह का झंडा खड़ा किया। दलमुच, कैलापाल, ढोलका तथा बाराभूम के राजाओं ने विद्रोह का समर्थन किया। 1768 में विद्रोहियों के द्वारा आत्म-विनाश की नीति अपनायी गयी। यह विद्रोह 1798 में चरमोत्कर्ष पर था। 6 अप्रैल, 1799 को रानी सिरोमणी को गिरफ्तार कर कलकत्ता जेल भेद दिया गया। परन्तु इससे चुआरों के विद्रोह की अग्नि शांत नहीं हुईं। विद्रोह की अग्नि जलती रही और आगे चलकर यह विद्रोह 1832 में बीरभूम (बंगाल) के जमींदार के पुत्र गंगा नारायण के नेतृत्व में किए गए विद्रोह में शामिल हो गया।


9. उड़ीसा के जनजाति के लिए ‘चक्र विसोई’ ने क्या किए? 

उत्तर⇒ कंध आदिवासी उड़ीसा राज्य के तत्कालीन मद्रास प्रांत तथा बंगाल के विशाल पहाड़ी क्षेत्र में रहते थे। इस जनजाति में विपत्तियों एवं आपदाओं से मुक्ति प्राप्त करने के लिए ‘मरियाह प्रथा’ (मानव बलि प्रथा) प्रचलित थी। 1837 ई० में ब्रिटिश सरकार ने इस प्रथा को बन्द करने का प्रयास किया। उस समय घुमसार के ताराबाड़ी नामक गाँव में जन्मे चक्र विसोई ने इसका विरोध किया । उसने अंग्रेजों पर आदिवासियों के सामाजिक एवं धार्मिक प्रथाओं में हस्तक्षेप करने का आरोप लगाया और उनका प्रबल विरोध किया। 1857 की क्रांति (सिपाही विद्रोह) में कंध आदिवासियों ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध सैन्य संचालन किया । चक्र विसोई आजीवन अंग्रेजों से लोहा लेता रहा।


10. आदिवासियों के क्षेत्रवादी आन्दोलन का क्या परिणाम हुआ ? 

उत्तर⇒ वन्य समाज में निवास करने वाली जनजातियों ने औपनिवेशिक शासन के खिलाफ एक संघर्षपूर्ण लड़ाई लड़ी, जिसके परिणामस्वरूप औपनिवेशिक शोषण से मुक्ति मिल गई। फिर भी उनका आन्दोलन थमा नहीं । अब उनके आन्दोलन का स्वरूप बदल गया । यह आन्दोलन क्षेत्रवादी आन्दोलन में बदल गया। वे अलग राज्य की माँग करने लगे। क्षेत्रवादी आन्दोलन के परिणामस्वरूप भारत सरकार ने मध्य प्रदेश राज्य का पुनर्गठन करके । नवम्बर, 2000 को आदिवासी बहुल क्षेत्र का एक पृथक राज्य छत्तीसगढ़ बना दिया। इसी प्रकार 15 नवम्बर, 2000 को बिहार राज्य का पुनर्गठन करके आदिवासी बहुल क्षेत्र झारखण्ड को अलग राज्य का दर्जा दे दिया।


दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ⇒


1. अठारहवीं शताब्दी में भारत में जनजातियों के जीवन पर प्रकाश डालें। 

उत्तर⇒ अठारहवीं शताब्दी के पहले तक ये जनजातियाँ वन सम्पदा का प्रयोग अपने जीविकोपार्जन के लिए करती थीं। इनका जीवन बहुत ही सीधा-सादा होता था और सामाजिक जीवन में ये लोग अहस्तक्षेप की नीति अपनाते थे। अठारहवीं शताब्दी के अन्त तक ये विदेशियों के उपनिवेशवाद के शिकार बन गये। अंग्रेजों ने उनके सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप किया। कबीलों में बँटे वन्य समाज के सरदारों को जमींदार का दर्जा दे दिया। वन्य समाज के अन्दर ईसाई मिशनरियों के घुसपैठ को बढ़ावा दिया गया, जिससे उनकी सामाजिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गयी । जंगल से उनके गहरे रिश्ते को भी तोड़ दिया गया। छोटे शिकार पर प्रतिबन्ध लगा दिया। वन्य समाज में ईसाई मिशनरियों के घुसपैठ के कारण बहुत बड़ी संख्या में आदिवासियों ने ईसाई धर्म को अपना लिया। शिक्षा पाने के कारण वे अपने अन्य भाइयों से घृणा करने लगे। आदिवासी इसे अपने सामाजिक एवं धार्मिक जीवन में अंग्रेजों द्वारा किए गए अतिक्रमण समझकर इसका विरोध करना शुरू कर दिया। 

वन्य समाज के आर्थिक जीवन का आधार कृषि था। वे स्थान बदल-बदलकर ‘झूम’ खेती करते थे । कृषि की इस व्यवस्था से अंग्रेजों को लगान निश्चित करने और उनकी वसूली करने में कठिनाई होती थी । अतः अंग्रेजी सरकार ने इस व्यवस्था पर प्रतिबंध लगा दी। अनेक समुदायों को अपना स्थान परिवर्तन करना पड़ा। आदिवासियों में खेती के अतिरिक्त अन्य उद्योग-धंधों का भी प्रचलन था। वे हाथी दाँत, बाँस, मसाले, रेशे, रबर आदि का व्यापार भी करते थे। अंग्रेजों ने उनके इस व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया। अंग्रेजों ने रेल की पटरी एवं रेल के डब्बे की सीट बनाने के लिए जंगलों की कटाई शुरू कर दी। आदिवासियों के लिए पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दिया गया एवं जंगल को लकड़ी उत्पादन के लिए सुरक्षित किया गया, जिससे आदिवासी जीवन पर कुठाराघात हुआ। अंग्रेजी सरकार ने यहाँ के जमीन से अब राजस्व प्राप्त करने के लिए जमींदारी व्यवस्था लागू की। 

अठारहवीं शताब्दी में वन्य समाज कबीलों में बँटा था। प्रत्येक जनजाति मुखिया के तहत संगठित थी। मुखिया का कर्तव्य कबीला को सुरक्षा प्रदान करना था। धीरे-धीरे ये मुखिया कबीलों पर अपना अधिकार जमाना शुरू कर दिए। उन्होंने अपने लिए बहुत से विशेषाधिकार प्राप्त कर लिए।


2. तिलका मांझी कौन थे ? उसने आदिवासियों के लिए क्या किया ? 

उत्तर⇒ तिलका मांझी पहाड़िया विद्रोह का नेता था । उसका जन्म 1750 में भागलपुर प्रमंडल स्थित सुलतानगंज के पास तिलकपुर गाँव में हुआ था। उसने पहली बार भू-राजस्व की राशि कम करने एवं किसानों की भूमि जमींदार से छुड़वाने के लिए वहाँ सशस्त्र विद्रोह किया था। उसने अंग्रेजों पर हिंसक कार्रवाई भी की थी। 

भागलपुर के राजमहल पहाड़ियों के क्षेत्र में संथाल जनजाति रहती थीं। यहाँ के मुखिया को अंग्रेजों ने जमींदार बना दिया और राजस्व वसूली का कार्य उन्हें सौंपा दिया। अंग्रेजों ने साहूकारों, ठेकेदारों, राजस्व, वन तथा पुलिस अधिकारियों को इनका शोषण करने के लिए प्रेरित किया। फलतः आदिवासियों को ऋणग्रस्तता के कारण अपनी भूमि गैर-आदिवासियों को हस्तांतरित करने के लिए विवश होना पड़ रहा था। तिलका मांझी नहीं चाहता था कि वन्य समाज एवं पहाड़ी क्षेत्रों के जनजातीय समाज में कोई भी बाहरी व्यक्ति हस्तक्षेप करे, उनका शोषण करे और उनकी सामाजिक तथा धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाए । अतः उसने 1779 में पहली बार भू-राजस्व की राशि कम करने एवं किसानों की भूमि जमींदार से छुड़वाने के लिए वहाँ सशस्त्र विद्रोह किया। उसने तिलापुर जंगल को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। जमींदारों की सहायता करने के लिए अंग्रेजी सेना बुलायी गयी। 1784 में भागलपुर के प्रथम तत्कालीन कलक्टर बलेवलैंड पर उसने सशस्त्र प्रहार किया, जिससे बाद में उसकी मृत्यु हो गयी। हिंसात्मक कार्यों एवं अंग्रेजों के विरोध करने के कारण उसे गिरफ्तार कर लिया गया। 1785 में भागलपुर में बीच चौराहे पर बरगद के पेड़ से लटका कर उसे फांसी दे दी गयी। तिलका मांझी अपने क्षेत्र की आजादी के लिए शहीद हो गया। यद्यपि, उसके द्वारा किया गया विद्रोह असफल हो गया है, लेकिन उसने आगे के संथाल विद्रोह का प्रशस्त कर दिया। इस प्रकार तिलका मांझी ने अंग्रेजों द्वारा शोषण एवं उत्पीड़न के खिलाफ लड़ते हुए अपने प्राण न्योछावर कर न केवल आदिवासियों के लिए बल्कि देश के लिए भी उदाहरण प्रस्तुत किया।


3. संथाल विद्रोह से आप क्या समझते हैं? 1857 के विद्रोह में उनकी क्या भूमिका थी? 

उत्तर⇒ भागलपुर से राजमहल के बीच का क्षेत्र, दामन-ए-कोह के नाम से जाना जाता था। यह संथाल बहुल क्षेत्र था। यहाँ 1855-57 के बीच विद्रोह हुआ था। इस विद्रोह के नेता सिद्धू और कान्हू थे। यह विद्रोह मुख्य रूप से महाजनों एवं व्यापारियों के खिलाफ उत्पन्न हुआ था । परन्तु बाद में यह गोरे काश्तकार, रेलवे इंजीनियर, स्थानीय अधिकारी एवं पुलिस के भी खिलाफ जन-आन्दोलन का रूप. ले लिया। 

30 जून, 1855 को लगभग दस हजार संथाल अपने अस्त्र-शस्त्र के साथ भागडीही में जमा हुए, जहाँ सिद्धू और कान्हू ने भगवान के इस वचन का एलान किया कि “संथाल अपने शोषकों के चंगुल से बाहर आएँ ।” संथालों ने इस विद्रोह को “हराम पर भगवान की विजय का नाम दिया।” संथालों में यह मान्यता थी कि उनका भगवान हमेशा उनके साथ लड़ेगा। इस कारण उनके इस विद्रोह को उनका जातीय एवं नैतिक औचित्य भी प्राप्त हो गया। जुलाई, 1955 में स्त्री एवं पुरुषों के आह्वान पर संथालों का विद्रोह शुरू हो गया। बहुत जल्द ही 60 हजार हथियार बन्द संथालों को इकट्ठा कर लिया गया। इसके लिए हजारों हथियार बंद संथालों को तैयार रहने के लिए भी कहा गया। सशस्त्र विद्रोह का आरंभ दीसी नामक स्थान में अत्याचारी दारोगा महेश लाल की हत्या से आरंभ हुआ। सरकारी दफ्तरों, महाजनों के घर तथा अंग्रेजों की बस्तियों पर आक्रमण किया गया। अनेक अंग्रेज मार डाले गये । आदिवासियों के इस तरह के संगठित विद्रोह से अंग्रेज डर गये और कलकत्ता तथा पूर्णिया से सेना बुलाकर कुचल डाले। कान्हू सहित 5000 से अधिक संथाल मार दिए गए। उपद्रवग्रस्त क्षेत्रों में मार्शल लॉ लागू किया गया। सिद्धू और अन्य नेता गिरफ्तार कर लिए गए। इस विद्रोह में संथालों ने अदम्य साहस का परिचय दिया, परन्तु फिर भी विद्रोह असफ हो गया। परन्तु आगे चलकर संथालों ने यह स्पष्ट घोषणा कर दी कि उन्होंने अंग्रेजों एवं उनके शासन के खिलाफ आन्दोलन किया है। जब 1857 की क्रांति की शुरुआत हुई तब ये संथाल विद्रोहियों के साथ और अंग्रेजों के खिलाफ उनका साथ दे रहे थे।


4. मुंडा विद्रोह के नेता कौन था? औपनिवेशिक शोषण के विरुद्ध उसने क्या किया ? 

उत्तर⇒ मुंडा विद्रोह बिहार के छोटानागपुर क्षेत्र में 1874 से 1901 के बीच हुआ था। प्रारंभ में इस विद्रोह का नेतृत्व मुंडा सरदारों के हाथ में था। 1895 से इस विद्रोह का नेता बिरसा मुंडा थे। बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर, 1874 को पलामू जिले के तमाड़ के निकट उलिहातु नामक गाँव में हुआ था । 

बिरसा मुंडा बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि का था । वह ग्रामीण जड़ी-बूटी की जानकारी रखता था। बिरसा मुंडा अपने दवा के ज्ञान और बीमारों को ठीक करने की दैवी शक्ति के कारण लोगों के बीच काफी लोकप्रिय था। उसने आदिवासियों की गरीबी और शोषण पर गहरी चिंता व्यक्त की। इसके लिए औपनिवेशिक शासन के भू-राजस्व प्रणाली, न्याय-प्रणाली एवं शोषणपूर्ण नीतियों का समर्थन करने वाले जमींदारों को दोषी ठहराया। मुंडा एक ऐसी स्थिति की कल्पना करने लगा जिसमें न तो देशी और न ही विदेशी शोषक वहाँ दखल दें। उसपर धर्म का भी बहुत प्रभाव था तथा उसे ईश्वर में अटूट विश्वास था । ताकतवर शासक से जीत के प्रयास में जंगल के पानी पर विश्वास करने लगे। उन्हें ऐसा विश्वास हो गया था कि वे उन्हें अपराजेय बना देगा। 1895 में उसने अपने-आपको ईश्वर का दूत घोषित कर दिया। धार्मिक आन्दोलन के आधार पर बिरसा मुंडा ने सभी आदिवासियों को हथियार बन्द करना शुरू कर दिया। आदिवासियों को उनके अधिकारों के प्रति सजग कराया। मुंडा जनजाति के साथ-साथ अन्य जनजातियों में भी उसने जागरूकता पैदा की और उन्हें संगठित किया। इस विद्रोह में महिलाएँ भी शामिल हुईं और महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 25 दिसम्बर, 1899 को उसने ईसाई मिशनरियों पर आक्रमण किया। कुछ मौकों पर हिंसा भी हुई, लेकिन विद्रोह में गैर-आदिवासियों के खिलाफ कोई भी भाव नहीं था । बिरसा मुण्डा का विद्रोह ब्रिटिश अधिकारियों एवं विदेशी मिशनरियों के द्वारा निर्ममता से दबा दिया गया। इस विद्रोह में 200 पुरुष एवं महिला मारे गये तथा 300 लोग बन्दी बना लिए गए। कई नेताओं को भी गिरफ्तार कर लिया गया। 3 मार्च, 1900 को बिरसा मुंडा को भी गिरफ्तार कर लिया गया। राँची जेल में जून में हैजा से उसकी मृत्यु हो गई ।


5. वे कौन से कारण थे, जिन्होंने अंग्रेजों को वन्य समाज में हस्तक्षेप की नीति अपनाने के लिए बाध्य किया ? 

उत्तर⇒ औपनिवेशिक शासनकाल में निम्नलिखित कारणों से अंग्रेजों को वन्य समाज में हस्तक्षेप की नीति को अपनाने के लिए बाध्य होना पड़ा- 

(i) वन्य समाज के आर्थिक जीवन का आधार कृषि था। वे जगह बदल-बदल कर ‘घूमंतु’, ‘झूम’ या पेडू विधि से खेती करते थे । खेती की इस व्यवस्था से अंग्रेजों को लगान निश्चित करने और झूम खेती पर उनकी वसूली में कठिनाई होती थी । अतः अंग्रेजी सरकार ने रोक. लगा दी। 

(ii) उन्नीसवीं शताब्दी में अंग्रेजों को खाद्यान्न और औद्योगिक उत्पादन के लिए कच्चे माल की जरूरत थी। इसकी पूर्ति के लिए अंग्रेजों ने खाद्यान्न, पटसन, गन्ना, पटसन उत्पादन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से व्यावसायिक फसलों के उत्पादन के लिए जंगलों को काटकर कृषि क्षेत्र का विस्तार किया। इससे वन्य समाज के जीवन में हस्तक्षेप हुआ ।

(iii) उन्नीसवीं सदी के शुरुआत तक इंगलैंड में ओक के जंगल समाप्त हो गये। इसकी वजह से शाही नौसेना के लिए लकड़ी की आपूर्ति के लिए बड़े पैमाने पर पेड़ काटे जाने लगे। इससे वन्य समाज का जीवन प्रभावित हुआ। 

(iv) भारत में रेल लाइनों का जाल 1860 के दशक में तेजी से फैला। रेल लाइनों के प्रसार के साथ-साथ बड़ी तादाद में पेड़ काटे गए। इससे वन्य समाज के जीवन में हस्तक्षेप हुआ ।


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