Class 9th History Chapter Wise Short Long Type Question | इतिहास की दुनिया चैप्टर नाम- “फ्रांस की क्रांति” का प्रशन
Class 9th – कक्षा 9वीं
विषय – इतिहास की दुनिया
Short Long Question (लघु दीर्घ उत्तरीय प्रश्न)
चैप्टर का नाम- फ्रांस की क्रांति (The French Revolution)
लघु उत्तरीय प्रश्न ⇒
1. फ्रांस की क्रांति के राजनीतिक कारण क्या थे?
उत्तर⇒ फ्रांस का तत्कालीन सम्राट लुई सोलहवाँ एक निरंकुश एवं अयोग्य शासक था। वह सदा भोग-विलास और ऐश्वर्य में लीन रहता था। अपने अधिकारियों पर उसका कोई नियंत्रण नहीं था। वे सदा मनमानी करते थे। राज्य में अन्याय एवं अत्याचारों का बोलबाला था। शासन नाम की कोई चीज नहीं थी । देश के प्रत्येक भाग में विभिन्न न्यायालय एवं कानून लागू थे। जनसाधारण पर करों का भार था। जनता के अधिकारों, कर्तव्यों एवं स्वतंत्रता के ठीक अर्थ का किसी को पता नहीं था। केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति फ्रांसीसी क्रांति की सबसे महत्त्वपूर्ण कारण था । अतः 1789 तक आते-आते जनसाधारण शासन में भाग लेने के लिए उतावला होने लगी।
2. फ्रांस की क्रांति के सामाजिक कारण क्या थे?
उत्तर⇒ 1789 की फ्रांसीसी क्रांति से पूर्व फ्रांस का समाज मुख्यतः तीन वर्गों – पादरी वर्ग, कुलीन वर्ग और साधारण वर्ग में बँटा हुआ था। पादरी वर्ग में रोमन कैथोलिक चर्च के उच्च श्रेणी के पादरी थे। वे बहुत धनी और अत्यधिक जमीनों के मालिक थे। उन्हें कई प्रकार के विशेषाधिकार प्राप्त थे। उन्हें कोई टैक्स नहीं देना पड़ता था । उनका जीवन ऐश्वर्यपूर्ण तथा विलासी था । वे धर्म की आड़ में अनेक पाप करते थे। कुलीन वर्ग में उच्च सरकारी अधिकारी और बड़े-बड़े जमींदार होते थे । इन लोगों के पास अपनी जागीर होती थी। वे कृषकों से उपज का 1/5 भाग लेते थे। उन्हें कई प्रकार के विशेषाधिकार प्राप्त थे। साधारण वर्ग में मजदूर, किसान, छोटे सरकारी कर्मचारी, वकील, डाक्टर, शिल्पी, पत्रकार, अध्यापक आदि शामिल थे। इन लोगों से हर प्रकार के कर लिए जाते थे। इनसे बेगार भी ली जाती थी। फ्रांस का यह बहुत असंतुष्ट वर्ग था ।
3. क्रांति के आर्थिक कारणों पर प्रकाश डालें।
उत्तर⇒ अनेक युद्धों में भाग लेने के कारण फ्रांस की आर्थिक दशा बहुत बिगड़ गई थी । वहाँ के सम्राटों – लुई चौदहवें, लुई पन्द्रहवें एवं लुई सोलहवें के विलासी जीवन ने देश की आर्थिक स्थिति को और अधिक बिगाड़ दिया था। कर प्रणाली भी अच्छी नहीं थी । करों का भार साधारण जनता पर था और धनी लोग करों से मुक्त थे। जनता से लिए गए करों की पूरी राशि भी सरकारी खजाने में जमा नहीं होती थी। फलत: फ्रांस का खजाना खाली होने लगा और राज्य दिवालिया हो गया। अब सरकार कर्ज लेने लगी। क्रांति के अवसर पर फ्रांस पर साठ करोड़ डॉलर का ऋण था जिसपर उसे ब्याज देना पड़ रहा था। क्रांति के पूर्व देश की आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो गयी थी कि अन्ततः इसी कारण को लेकर फ्रांस में क्रांति का श्रीगणेश हुआ।
4. फ्रांस की क्रांति के वौद्धिक कारणों का उल्लेख करें।
उत्तर⇒ फ्रांसीसी बुद्धिजीवियों ने फ्रांस में बौद्धिक आन्दोलन का सूत्रपात किया। इनमें प्रमुख मांटेस्क्यू, वाल्टेयर, रूसो और दिदरो थे। फ्रांस के बुद्धिजीवियों ने मिथ्या विश्वासों को समाप्त करके एवं मानवीय प्रथाओं और संगठनों में सुधार लाकर सुख प्राप्ति का मार्ग प्रदर्शित किया । पादरियों के मिथ्याडम्बर के विरुद्ध प्रचार किया। मांटेस्क्यू तथा रूसो जैसे लेखकों ने लोकतंत्र का जोरदार शब्दों में समर्थन किया। रूसो ने नई सामाजिक संविदा की आवश्यकता पर बल दिया। वाल्टेयर ने चर्च, समाज और राजतंत्र के दोषों का पर्दाफाश किया। मांटेस्क्यू और वाल्टेयर सुधार चाहते थे। परन्तु रूसो पूर्ण परिवर्तन चाहता था । दिदरो ने फ्रांस में क्रांतिकारी विचारों का प्रचार किया। फ्रांस के अर्थशास्त्रियों की ‘अहस्तक्षेप के सिद्धान्त’ में पूरी आस्था थी। फ्रांस के अर्थशास्त्री क्वेजनों एवं तुर्गो ने समाज में आर्थिक शोषण एवं आर्थिक नियंत्रण की आलोचना की। राष्ट्रीय चेतना के इस प्रवाह ने फ्रांसीसी क्रांति के लिए आधार तैयार किया और क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया।
5. ‘लेटर्स-डी-कैचेट’ से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर⇒ फ्रांस में सभी प्रकार की स्वतंत्रताओं का अभाव था। वहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धार्मिक स्वतंत्रता तथा वैयक्तिक स्वतंत्रता का पूर्ण अभाव था। फ्रांस का राजधर्म कैथोलिक धर्म था और प्रोटेस्टेंट धर्म के मानने वालों को कठोर दण्ड दिया जाता था। राजा अथवा उसका कोई भी कारिंदा किसी भी व्यक्ति को बिना कारण बताए गिरफ्तार कर या करवा सकता था। बिना अभियोग बताए ऐसे ही गिरफ्तारी वारंट को फ्रांस में ‘लेटर्स-डी-कैचेंट’ कहा जाता था।
6. अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम का फ्रांस की क्रांति पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर⇒ फ्रांस में राजनीतिक क्रांति लाने में अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। फ्रांस की क्रांति का नेता लफाते अमेरिकी युद्ध में हिस्सा ले चुका था। अमेरिकी युद्ध के विचार ने सैनिकों तथा जनता को प्रभावित किया। अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम में जो खर्च हुआ उसने फ्रांस को आर्थिक दृष्टि से खोखला कर दिया तथा बाद में लगाए गए करों का बोझ लोगों को असह्य हो गया। बढ़े हुए ऋण से मुक्ति पाने के लिए फ्रांस की सरकार को विधानसभा को बुलाना पड़ा था। वहीं से क्रांति की शुरुआत हो गई।
7. ‘मानव एवं नागरिकों के अधिकार’ से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर⇒ 1789 में फ्रांस की राष्ट्रीय सभा ने ‘मनुष्य तथा नागरिकों के अधिकारों की घोषणा’ को स्वीकार किया था। संसार के इतिहास में सर्वप्रथम मानव अधिकारों की घोषणा तथा स्वतंत्रता एवं समानता के सिद्धांतों को प्रतिपादित करके फ्रांस की क्रांति ने व्यक्ति की महत्ता को स्वीकार किया। निश्चय ही संसार के इतिहास में यह एक महान घटना थी। अभी तक समाज में साधारण व्यक्ति का कोई महत्त्व नहीं था। प्रत्येक व्यक्ति को राजनीतिक स्वतंत्रता मिली। राज्य की सर्वोच्च सत्ता उसी में निवास करने लगी। जनता की अभिव्यक्ति को ही कानून माना जाने लगा । कानून के समक्ष सभी समान हैं। सामाजिक असमानता का अन्त हो गया और वर्ग-विभेद की पुरानी बात समाप्त हो गई। आगे चलकर यह सिद्धांत विश्वव्यापी रूप धारणा कर लिया।
8. फ्रांस की क्रांति का इंगलैंड पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर⇒ फ्रांस की क्रांति का इंगलैंड पर भी प्रभाव पड़ा। इंगलैंड ने ही नेपोलियन के विजय अभियान पर अंकुश लगाया और उसे हराया। इलैंड में भी राजनीतिक एवं सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए अनेक आन्दोलन चलाए गए। विग पार्टी में फूट पड़ गई और निर्बल हो गई। साथ ही यह दल अधिक उदार और प्रजातंत्रात्मक विचारों का समर्थन करने लगा। आयरलैंड का स्वतंत्रता आन्दोलन बल पकड़ने लगा। इंगलैंड की जनता ने सामन्तवाद के खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी। फलतः 1832 में इंगलैंड में ‘संसदीय सुधार अधिनियम’ पारित हुआ । जनता के लिए अनेक सुधारों का मार्ग प्रशस्त हुआ और जमींदारों की शक्ति समाप्त कर दी गई। फ्रांस की क्रांति के फलस्वरूप इंगलैंड की औद्योगिक क्रांति की भी प्रगति हुई ।
9. फ्रांस की क्रांति ने इटली को प्रभावित किया, कैसे ?
उत्तर⇒ नेपोलियन ने फ्रांसीसी क्रांति को शक्तिशाली नेतृत्व प्रदान किया। इटली इस समय कई भागों में विभाजित था। फ्रांसीसी क्रांति के बाद नेपोलियन ने इटली के विभिन्न भागों में अपनी सेना एकत्रित कर युद्ध की तैयारी की और इटली राज्य स्थापित किया। विभिन्न भागों की सेना को एक साथ मिलकर युद्ध करने से उनमें राष्ट्रीयता की भावना जागृत हुई। वहाँ की जनता के सामने इस आदर्श को रखा कि प्रयास करने पर इटली का एकीकरण संभव है। इस नये आदर्श से अनुप्राणित होकर इटली के देशभक्तों में एक नया जोश हिलोरे मारने लगा। फलस्वरूप इटली के भावी एकीकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ ।
10. फ्रांस की क्रांति से जर्मनी कैसे प्रभावित हुआ ?
उत्तर⇒ अठारहवीं शताब्दी में जर्मनी कुछ बड़े तथा कई अत्यंत छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था । नेपोलियन से युद्ध के कारण अनेक राज्यों के समाप्त होने के बाद भी 38 राज्य बचे रह गये थे जिसमें प्रशा, वर्तेम्बर्ग, बावेरिया, बेरैत और सैक्सोना काफी बड़े थे। फ्रांस की क्रांति से राष्ट्रीय चेतना की जागृति के साथ इन राज्यों के लोगों ने जर्मनी के राष्ट्रीय एकीकरण, लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना और सामाजिक एवं आर्थिक सुधारों की माँग करने लगे।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ⇒
1. फ्रांस की क्रांति के क्या कारण थे ?
उत्तर⇒ फ्रांस की क्रांति के मुख्य कारण निम्नलिखित थे-
(i) राजनीतिक कारण : फ्रांस में राज्य का अध्यक्ष राजा था जो पूर्णतया निरंकुश होता था। क्रांति के समय वहाँ का दैवी अधिकार प्राप्त शासक लुई सोलहवाँ जो फिजूल खर्च था तथा सरकारी कार्यों के प्रति सर्वथा उदासीन था । वह एक अयोग्य शासक था और सदा भोग-विलास और ऐश्वर्य में लीन रहता था । अपने अधिकारियों पर उसका कोई नियंत्रण नहीं था। वे सदा मनमानी करते थे । देश में शासन नाम की कोई चीज नहीं थी । ऐसी स्थिति में क्रांति का होना स्वाभाविक था ।
(ii) आर्थिक कारण : फ्रांस की आर्थिक दशा बहुत खराब थी। राजस्व का 9 प्रतिशत उसके 15000 प्रिय व्यक्तियों के भरण-पोषण पर खर्च होता था। राजनीतिक आय का लगभग 25 प्रतिशत राजमहल पर खर्च होता था। बड़ी सेना तथा युद्धों के व्यय ने तो फ्रांस सरकार का दिवाला निकाल दिया था। 1789 में लुई सोलहवाँ ने धन की व्यवस्था के लिए पुरानी सामन्ती सभा की अनुमति लेने का प्रयास किया। इसी समय जनता के बीच यह अफवाह फैल गई कि सभा को भंगकर उसके प्रमुख सदस्यों को बन्दी बना लिया जाएगा। यहीं से क्रांति आरंभ हो गई।
(iii) सामाजिक कारण : तत्कालीन फ्रांसीसी समाज तीन वर्गों – पादरी वर्ग, कुलीन वर्ग और साधारण वर्ग में विभाजित था। पादरी वर्ग में एक लाख तीस हजार पादरी थे। दूसरे, कुलीन वर्ग में लगभग चार लाख व्यक्ति थे। इन दोनों वर्गों के व्यक्तियों के पास फ्रांस की कुल भूमि का 40 प्रतिशत था। इनकी जनसंख्या फ्रांस की कुल जनसंख्या का मात्र दो प्रतिशत थी। तीसरे वर्ग में किसान, मजदूर, छोटे सरकारी कर्मचार, शिल्पी, अध्यापक, डॉक्टर, वकील आदि शामिल थे। किसानों और मजदूरों की आर्थिक दशा बड़ी शोचनीय थी । पाटरी और कुलीन वर्ग के लोगों को विशेषाधिकार प्राप्त था। वे कर भी नहीं देते थे, साधारण वर्ग को पादरी और कुलीन वर्ग के सामने अपमानित होना पड़ता था । मध्यम वर्ग के विकास के लिए सामन्ती व्यवस्था का अन्त आवश्यक हो गया था।
(iv) अन्य कारण : फ्रांसीसी क्रांति के पूर्व इंगलैंड, आस्ट्रिया तथा प्रशा आदि देशों में राजनीतिक तथा आर्थिक सुधारों को लाने के लिए आन्दोलन तेज किए जा रहे थे। ये आन्दोलन निरंकुश राजतंत्र, सामन्तवाद तथा पूँजीवाद पर आधारित वाणिज्य- संरक्षण सिद्धांत के विरोध में चल रहे थे। इन सबका प्रभाव फ्रांस पर भी पड़ा था। अतः फ्रांस में विस्फोट होना स्वाभाविक था ।
2. फ्रांस की क्रांति के परिणामों का उल्लेख करें।
उत्तर⇒ फ्रांस की क्रांति विश्व के इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। इसके निम्नलिखित परिणाम हुए-
(i) फ्रांस में राजतंत्र सदा के लिए समाप्त हो गया और उसके स्थान पर गणतंत्र की स्थापना हुई जिसमें स्वतंत्रता, समानता तथा बन्धुत्व को प्रोत्साहन मिला। सामन्तवाद का सदा के लिए अन्त हो गया।
(ii) फ्रांस में नये समाज का निर्माण हुआ। यह समाज समानता, स्वतंत्रता एवं बन्धुत्व के सिद्धांत पर आधारित था ।
(iii) फ्रांस में सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक भेदभाव समाप्त कर दिये गये।
(iv) राष्ट्रीय सभा की शक्ति बढ़ा दी गई। नये कानून एवं कर इसी सभा द्वारा पास होने लगे। अब सबके लिए एक जैसे कानून थे।
(v) पादरियों के अधकारों में कमी कर दी गई। उनका अधिकार क्षेत्र अब चर्च तक ही सीमित कर दिया गया।
(vi) इस क्रांति ने राज्य को धर्म से अलग कर धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना की । जनता को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की गई।
(vii) इस क्रांति ने सामंती अर्थतंत्रीय प्रणाली को समाप्त कर नई पूँजीवादी अर्थतंत्रीय प्रणाली को निर्माण जन्म दिया।
(viii) फ्रांस के नेशनल एसेम्बली ने पहली बार व्यक्ति की महत्ता पर बल दिया। नागरिकों के मौलिक अधिकारों एवं कर्तव्यों की घोषणा की गई।
3. फ्रांस की क्रांति एक मध्यमवर्गीय क्रांति थी, कैसे ?
उत्तर⇒ अठारहवीं शताब्दी में फ्रांसीसी समाज तीन श्रेणी में बँटा हुआ था। प्रथम श्रेणी में पादरी, दूसरी श्रेणी में अभिजात वर्ग तथा तीसरी श्रेणी में जनसाधारण वर्ग था। फ्रांस की कुल जनसंख्या का लगभग 90 प्रतिशत जनता तीसरी श्रेणी में थी। इस वर्ग में किसान, मजदूर, छोटे सरकारी कर्मचारी, वकील तथा डॉक्टर आदि शामिल थे। ये अपने स्वामी की सेवा, स्वामी के घर एवं खेतों में काम करना, सैन्य सेवाएँ देना अथवा सड़कों के निर्माण में सहयोग देना आदि कार्यों के लिए बाध्य थे। इन लोगों से हर प्रकार के कर लिए जाते थे। इनसे बेगार भी लिया जाता था। इन्हें कोई भी विशेषाधिकार प्राप्त नहीं था। इसी वर्ग में डॉक्टर, अभियंता, वकील, जज, अध्यापक, व्यापारी, शिक्षक, लेखक, शिल्पी एवं मजदूर आदि शामिल थे, जो शहरी क्षेत्र में रहते थे। ये वर्ग मध्यम वर्ग कहलाता था जिन्होंने फ्रांस की क्रांति में अहम भूमिका निभाई। इन्हें राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं थे। उन्हें पग-पग पर पादरी और अभिजात वर्ग के सम्मुख अपमानित होना पड़ता था । मध्यम वर्ग के विकास के लिए सामन्ती व्यवस्था को पूरी तरह नष्ट करना आवश्यक था। दूसरी ओर फ्रांस के मजदूर तथा दस्तकार बिना मालिक की इच्छा के और उनसे अच्छे आचरण का प्रमाण-पत्र लिए बिना अपनी नौकरी छोड़कर दूसरी नौकरी नहीं कर सकते थे। प्रमाण-पत्र विहीन मजदूरों को बंदी बनाया जा सकता था। उन्हें कठिन परिश्रम करना पड़ता तथा भारी कर देने पड़ते थे। अन्ततोगत्वा सताए गए मजदूरों ने हड़ताल और विद्रोह का रास्ता अपनाया तथा पेरिस की जनता ने भी इसका साथ दिया। अतः इस क्रांति की अगुआई में तीसरे वर्ग के लोग थे और इसी वर्ग के लोगों के लिए यह क्रांति भी हुई थी। इस क्रांति का नेतृत्व भी तीसरे वर्ग के हाथों में था और क्रांति का लाभ भी इसी वर्ग को हुआ था। अतः हम कह सकते हैं कि यह क्रांति मध्यम वर्गीय क्रांति थी ।
4. फ्रांस की क्रांति में वहाँ के दार्शनिकों का क्या योगदान था ?
उत्तर⇒ अठारहवीं शताब्दी में फ्रांस में अनेक क्रांतिकारी विचारक अथवा दार्शनिक हुए। उन्होंने स्वतंत्रता, समान नियमों तथा समान अवसरों के विचार पर आधारित समाज की परिकल्पना की। इनमें मांटेस्क्यू, रूसो, वाल्टेयर प्रमुख थे। उन्होंने जो विचार व्यक्त किये, वे तर्क पर आधारित थे । मान्टेस्क्यू ने लोकतंत्र के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। उसने राजा के दैवी अधिकारों का जोरदार खण्डन किया। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “द स्प्रिट ऑफ लॉ” में सरकार के अन्दर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच सत्ता विभाजन का विचार रखा। ऐसा करने से तीनों शक्तियाँ एक-दूसरे के अधिकारों को सीमित करेंगी तथा जनता के अधिकारों की रक्षा होगी। चूँकि फ्रांस में ये तीनों शक्तियाँ राजा के हाथ में ही केन्द्रित थीं। जॉनलॉक ने अपनी रचना “टू ट्रीटाइजेज ऑफ गवर्नमेंट” में राजा के दैवी अधिकार और निरंकुश अधिकारों के सिद्धांत का खण्डन किया । ज्यॉजाक रूसो ने इसी विचार को अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “सोशल कन्ट्राक्ट” में आगे बढ़ाया। उसने स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व के आधार पर सामाजिक समझौते की रूप-रेखा तैयार की। वाल्टेयर ने अपने लेखों के माध्यम से शोषण, अन्धविश्वास तथा अत्याचार का घोर विरोध किया। उसके विचारों ने राजा की निरंकुशता को खुले रूप से निन्दनीय एवं उपहासास्पद बना दिया । अर्थशास्त्री क्वसने ने आर्थिक मामलों पर सरकार के प्रतिबन्धों की खुली आलोचना की । उसने मुक्त व्यापार का जोरदार समर्थन किया। तुर्जा ने इस विचार का समर्थन किया। मध्यवर्ग के द्वारा आर्थिक क्षेत्र में राज्य की नियंत्रण के अभाव वाले इस सिद्धांत का खूब स्वागत हुआ। दार्शनिकों के इन विचारों का फ्रांस की जनता पर व्यापक रूप से प्रभाव पड़ा। इन सिद्धांतों से फ्रांस ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण विश्व प्रभावित हुआ। अतः फ्रांस की क्रांति में वहाँ के दार्शनिकों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था।
5. फ्रांस की क्रांति की देनों का उल्लेख करें।
उत्तर⇒ विश्व इतिहास में फ्रांस की क्रांति का विशेष स्थान है। मध्ययुग का अवसान और आधुनिक युग का प्रादुर्भाव इसी क्रांति के साथ हुआ। इस क्रांति की मुख्य देन निम्नलिखित हैं-
(i) फ्रांस की क्रांति ने नवीन सिद्धांतों को जन्म दिया। स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व का सिद्धांत सम्पूर्ण मानव समाज के लिए फ्रांसीसी क्रांति की शाश्वत देने है।
(ii) यूरोप तथा विश्व के विस्तृत भू-भाग पर लोकतंत्र की भावना फैलाने में फ्रांसीसी क्रांति की महत्त्वपूर्ण देन है।
(iii) फ्रांस की क्रांति ने राष्ट्र शब्द का आधुनिक अर्थ स्पष्ट किया। राष्ट्र का अर्थ देश-प्रदेश न होकर उस देश के लोग समझा जाने लगा। इसके कारण प्रभुसत्ता के विचार का आविर्भाव हुआ। प्रभुसत्ता के अन्तर्गत कोई राष्ट्र अपने स्वयं के कानूनों और प्रभुत्व के अलावा किसी और कानून या प्रभुत्व को मान्यता नहीं देता । प्रभुसत्ता का विचार फ्रांसीसी क्रांति की ही देन है।
(iv) फ्रांस की क्रांति ने एक ऐसी प्रगतिशील राष्ट्रीयता को जन्म दिया जिससे आधुनिक युग बहुत कुछ प्रभावित है। नागरिकों के हृदय में अपने देश की रक्षा के राष्ट्रीयता की भावना भरने में इस क्रांति की देन अद्वितीय मानी जा सकती है।
(v) समाजवादी परम्परा का जन्म भी इसी क्रांति के कारण हुआ । आधुनिक विश्व में समाजवाद एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक विचारधारा के रूप में उभरा। जन-कल्याणकारी राज्य की विचारधारा को भी व्यावहारिक रूप देने का प्रयास भी इसी क्रांति की देन है।
6. फ्रांस की क्रांति ने यूरोपीय देशों को किस तरह प्रभावित किया ?
उत्तर⇒ फ्रांस की क्रांति का प्रभाव केवल फ्रांस पर ही नहीं बल्कि यूरोप के अन्य देशों पर भी पड़ा। यूरोपीय जन-जीवन पर फ्रांसीसी प्रभाव की परम्परा अत्यंत पुरानी थी। चौदहवें लुई के समय से ही फ्रांस यूरोपीय संस्कृति का केन्द्र बन गया था। अन्य यूरोपीय देशों के लोग फ्रांसीसी साहित्य को बड़े चाव से पढ़ते थे और फ्रांसीसी रीति-रिवाज की नकल करने में गौरव का अनुभव करते थे। इस पृष्ठाधार में यह कैसे उम्मीद की जा सकती थी कि फ्रांस में महान् राजनीतिक घटनाएँ घटें और यूरोप के लोग उससे प्रभावित न हों। वस्तुतः यूरोप का शायद ही ऐसा कोई देश था जहाँ फ्रांस में क्रांति होने के बाद फ्रांस समर्थक या क्रांति समर्थक गुट नहीं बन गया हो । फ्रांसीसी क्रांति के सिद्धांत बड़े ही आकर्षक थे। वे मानव मात्र के उद्धार और मुक्ति का संदेश दे रहे थे। यह सम्पूर्ण राष्ट्र को नया जीवन देने का एक महान् प्रयोग था । अतएव यूरोप पर इसका तुरंत प्रभाव पड़ा। पराधीन और शोषित जनता ने एक स्वर से इसका स्वागत किया। विदेशी दास्ता से कुचले हुए पोलैंड के लोगों के जीवन में क्रांति ने एक नयी आशा का संचार किया। साइलेशिया के निम्न वर्ग, जो पशुतुल्य जीवन बिता रहे थे, सोचने लगे कि “फ्रांसीसी लोग एक दिन आकर हमारा उद्धार अवश्य करेंगे।” जर्मनी की कई बस्तियों में किसानों ने विद्रोह कर दिया। बेल्जियम में जहाँ के कुलीन पहले से ही आस्ट्रिया के आधिपत्य का विरोध कर रहे थे, एक दूसरा जन-विद्रोह हो गया। इस विद्रोह को फ्रांस की क्रांति से प्रेरणा मिली थी और इसका ध्येय सामन्तवाद का अन्त करना था। इंगलैंड में टामसपेन तथा रिचर्ड ब्राइस-जैसे उग्रवादी दार्शनिकों ने यह माँग रखी कि ब्रिटिश पार्लियामेंट का स्वरूप और अधिक प्रजातांत्रिक हो । इंगलैंड के बहुत-से व्यावसायिक जिनके वर्ग को पार्लियामेंट में प्रतिनिधित्व नहीं था, वे सभी क्रांति के उत्साही समर्थक थे। जेम्सवाट तथा वाउण्ट की सहानुभूति निश्चय ही क्रांति के पक्ष में थी । उसी तरह पराधीन आयरिश जनता को फ्रांस की क्रांति से प्रेरणा मिली और उन्होंने भी विद्रोह किया। संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन के स्वतंत्रता और समानता प्रेमी लोगों ने भी फ्रांस की घटना को एक महान् घटना के रूप में ग्रहण किया और यह आशा व्यक्त की, कि इससे निरंकुशता का अंत होगा। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में यूरोप के अनेक भागों में जो परिवर्तन हुए उनमें कुछ फ्रांसीसी क्रांति और नेपोलियन के युद्धों के कारण पड़ने वाले प्रत्यक्ष एवं तात्कालिक परिणाम थे। नेपोलियन ने फ्रांसीसी क्रांति के सिद्धांतों को यूरोप में फैलाकर राष्ट्रीय क्रांति को अन्तरराष्ट्रीय क्रांति का रूप दे दिया।
7. फ्रांस की क्रांति एक युगान्तरकारी घटना थी, इस कथन की पुष्टि करें।
उत्तर⇒ यूरोप के इतिहास में ही नहीं वरन् सारे संसार के इतिहास में फ्रांस की क्रांति का विशिष्ट स्थान है। इस क्रांति ने एक युग का अंत कर दूसरे युग का प्रारंभ किया। इसने मध्ययुग का अन्त कर आधुनिक युग के आगमन की सूचना दी। इसने सदियों से चली- आनेवाली व्यवस्था का अन्त करके एक ऐसी शक्ति उत्पन्न की जिसके फलस्वरूप एक नयी सभ्यता का जन्म हुआ। मध्यकालीन सामन्ती अवशेषों का अन्त करना फ्रांस की क्रांति की सबसे महत्त्वपूर्ण देन है। इसने समानता के न्यायोचित सिद्धांत को स्थापित करके साधारण व्यक्तियों को उनके उपयुक्त स्थान पर प्रतिष्ठित किया। फ्रांस की क्रांति एक ऐसी प्रगतिशील राष्ट्रीयता को जन्म दिया जिससे आधुनिक युग बहुत कुछ प्रभावित है। नागरिकों के हृदय में अपने देश के रक्षार्थ राष्ट्रीयता की भावना भरने में फ्रांस की क्रांति की देन अद्वितीय मानी जा सकती है। धर्म के क्षेत्र में क्रांति पैदा करना फ्रांस की क्रांति की एक दूसरी महत्त्वपूर्ण देन है। क्रांति के फलस्वरूप यूरोपीय देशों में धार्मिक सहिष्णुता का प्रादुर्भाव हुआ और लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता मिली। मध्ययुग में धर्म के नाम पर घोर अत्याचार हुए थे। आगे चलकर धर्म-निरपेक्ष राज्य की स्थापना में महत्त्वपूर्ण कदम उठाया गया। फ्रांस की क्रांति ने शासन के दैवी सिद्धांत का अन्त कर लोकप्रिय संप्रभुता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इस सिद्धांत ने एक ऐसे आन्दोलन का सूत्रपात किया जो आजतक कायम है और सम्भवतः तबतक कायम रहेगा जबतक यह पृथ्वी रहेगी। फ्रांस की क्रांति ने सर्वप्रथम मानव अधिकारों की घोषणा और फिर स्वतंत्रता एवं समानता के सिद्धांतों का प्रतिपादन करके व्यक्ति की महत्ता को स्वीकार किया। इस सिद्धांत ने आगे चलकर एक विश्वव्यापी रूप धारण कर लिया। किसी भी देश के प्रगतिशील लोगों के लिए इस आदर्श की स्थापना एक महान् उद्देश्य बन गयी। फ्रांस की क्रांति ने समाजवादी व्यवस्था के प्रारंभिक सिद्धांतों को जन्म दिया जो आज तक समाप्त नहीं हुआ है। जनवादी परम्परा के निर्माण में उसका बड़ा हाथ मानना गलत नहीं होगा। वस्तुत: अपने अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप में फ्रांस की क्रांति ने सभी मनुष्यों का वैचारिक वर्गीकरण करके एक नये युग का सूत्रपात किया । अतः हम कह सकते हैं कि यह एक महान् घटना थी जिसने पुरातन व्यवस्था की राजनीतिक, सामाजिक, वैधानिक तथा न्यायिक संस्थाओं को नष्ट कर दिया तथा सर्वथा एक नवीन युग का सूत्रपात किया, जिसकी विशेषता थी व्यक्तिगत अधिकारों पर बल देना ।
8. फ्रांस की क्रांति के लिए लुई XVI किस तरह उत्तरदायी था ?
उत्तर⇒ फ्रांस में राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था थी। 1774 में लुई XVI फ्रांस की गद्दी पर बैठा । निरंकुश शासन की कुशलता शासक के व्यक्तित्व पर निर्भर करती है। यह एक सर्वमान्य सिद्धांत है कि निरंकुश शासन योग्य और शक्तिशाली व्यक्ति द्वारा ही चलाया जा सकता है। परन्तु लुई सोलहवाँ न तो योग्य था और न शक्तिशाली । वह इतना अयोग्य था कि अपने अधिकार का समुचित प्रयोग भी नहीं कर सकता था । उसमें दृढ़ इच्छा शक्ति तथा प्रखर प्रतिभा की बड़ी कमी थी । भीरू स्वभाव तथा अस्थिर प्रकृति होने के कारण वह शीघ्र ही दूसरे के बहकावे में आ जाता था । खाओ-पीओ और मौज उड़ाओ उसके जीवन का प्रधान लक्ष्य था । लुई सोलहवें के जीवन पर सबसे विनाशकारी प्रभाव उसकी रानी मेरी एन्त्वायनेत का था। वह किसी काम को अपनी प्रेरणा से नहीं करता था, वरन् रानी और दरबारियों के दबाव में आकर करता था। नतीजा यह हुआ कि प्रशासन का यंत्र अस्त-व्यस्त हो गया और क्रांति के पूर्व सम्पूर्ण फ्रांस में अराजकता छा गयी। परन्तु लुई सोलहवाँ एक अयोग्य और अनुभवहीन व्यक्ति था । राज-काज संभालने में वह बिल्कुल असमर्थ था। क्रांति के समय फ्रांस असंतोष, अविश्वास, वर्ग-संघर्ष, संदेह, घृणा, शिकायत, रोष, अनुदारता, स्वतंत्रता आदि का वह समन्वय उपस्थित करता था जो क्रांति के लिए सर्वश्रेष्ठ सामग्री प्रदान करता है। फ्रांस की क्रांति किसी योजना का परिणाम न होकर उन घटनाओं की प्रगति के फलस्वरूप हुई थी जिन्हें फ्रांस के तत्कालीन राजा लुई सोलहवें ने अपनी अदूरदर्शिता के कारण ला दिया। यदि लुई सोलहवाँ बुद्धिमान, चतुर और दृढ़ निश्चयी व्यक्ति रहता तो संभवत: क्रांति टाली जा सकती थी। जैसा कि टॉकविले ने लिखा है- “इस रक्तरंजित क्रांति का समस्त उत्तरदायित्व लुई सोलहवें पर था । यदि वह दृढ़ता तथा समझदारी से काम लेता तो क्रांति न होती । ” अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि फ्रांस में क्रांति को टाला जा सकता था, लेकिन लुई सोलहवें ने अपने अविवेकपूर्ण कार्यों, अदूरदर्शिता, अयोग्यता आदि कारणों से इसे अवश्यम्भावी बना दिया।
9. फ्रांस की क्रांति में जैकोविन दल की क्या भूमिका थी?
उत्तर⇒ 14 जुलाई, 1789 के बाद लुई सोलहवाँ नाममात्र के लिए राजा बना रहा। राष्ट्रीय सभा देश के लिए अधिनियम बनाने लगी। 1791 में फ्रांस की राष्ट्रीय सभा ने संविधान का प्रारूप तैयार कर लिया। फ्रांस में संवैधानिक राजतंत्र की स्थापना की गई। लुई सोलहवाँ ने इसे मान भी लिया। क्रांति के प्रसिद्ध नेताओं-लफायते, दाँते, मारा, रॉब्सपियर, ऐविसियेज तथा मिराव्यो थे । इनमें मिराव्यो एक योग्य राजनीतिज्ञ था जो संकट की अवस्था में वह स्थिति को संभाल सकता था। दुर्भाग्यवश, 2 अप्रैल, 1791 को उसकी मृत्यु हो गई। इसके साथ ही क्रांति का भविष्य अनिश्चित हो गया। अब क्रांति का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में आया जो इसके लिए सर्वथा अयोग्य थे। व्यवस्थापिका सभा का नेतृत्व इन्हीं लोगों को मिला। इसका परिणाम हुआ राजतंत्र का अन्त, आतंक का राज्य और विदेशी युद्धों में फ्रांस का फँसना ।
मिराव्यो की मृत्यु के बाद फ्रांस में हिंसात्मक विद्रोह की शुरुआत हो गई। विदेशों में भी कुलीन वर्गों के द्वारा संविधान का विरोध किया गया। अप्रैल, 1792 में नेशनल एसेम्बली आस्ट्रिया, प्रशा तथा सेवाय (सर्विया) के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। क्रांतिकारी युद्धों से जनता की परेशानी बढ़ गई। उस समय सभी नागरिकों को मताधिकार भी प्राप्त नहीं था। नेशनल एसेम्बली का चुनाव भी अप्रत्यक्ष रूप से होना था। अतः ये सब बातें आलोचना का विषय बन गयी थीं। आलोचकों में प्रमुख जैकोबिन क्लब के सदस्य थे, जिसमें छोटे दुकानदार, कारीगर, घड़ीसाज, नौकर एवं दिहाड़ी मजदूर आदि शामिल थे। उस समय क्लब का नेतृत्व रॉब्सपीयर कर रहा था। मिराव्यो की मृत्यु के बाद इस दल का प्रभाव और अधिक बढ़ गया। उन्होंने पेरिस की कम्यून और पेरिस की भीड़ की सहायता से कन्वेंशन पर अधिकार जमा लिया। शासन की बागडोर जैकोबे लोगों के हाथ में आ गई। अब वे संकट का मुकाबला करने की तैयारी करने लगे।
जैकोबिन दल का नेता रॉब्सपियर वामपंथी विचारधारा का समर्थक था । अतः खाद्य पदार्थों की महँगाई एवं अभाव से नाराज होकर उसने हिंसक विद्रोह की शुरुआत की और आतंक का राज्य स्थापित किया। आतंक राज्य के सभी यंत्र उसके नियंत्रण में थे। उसने कठोर नीति को अपनाकर फ्रांस में आतंक का राज्य कायम रखा। वह एक नये युग की सृष्टि करने के आवेश में था जिसमें न कोई अमीर हो और न कोई गरीब। आतंक राज्य एक आपात्कालीन तानाशाही था ।
इसका उद्देश्य निरंकुशशाही कायम करके गृह-युद्ध का अन्त और राष्ट्रीय एकता कायम करना था । यह एक साधारण एवं अवैधानिक शासनतंत्र था। परन्तु असाधारण समय में असाधारण शासन-व्यवस्था अनिवार्य हो जाती है। इस समय फ्रांस जिन परिस्थितियों से घिरा हुआ था, उसमें वैधानिकता की बात उठाना गलत होती। इस हालत में फ्रांस के लोगों को कुछ समय के लिए उसे स्वतंत्रता से वंचित हो जाना पड़ा। इसमें कोई संदेह नहीं कि आतंक के राज्य में अनेक निर्दोष व्यक्तियों को मरना पड़ा। यदि आतंक का राज्य स्थापित नहीं हुआ रहता तो फ्रांस अपने बाहरी और भीतरी शत्रुओं से छुटकारा नहीं पाता। इसने क्रांतिकारी फ्रांस को मरने से बचा लिया। जैकोबिन दल ने राजा की सत्ता को पूर्णतः समाप्त कर प्रत्यक्ष प्रजातंत्र स्थापित करने के उद्देश्य से 21 वर्ष से अधिक आयु के सभी नागरिकों को वोट का अधिकार दे दिया।
10. नेशनल एसेम्वली और नेशनल कन्वेंशन ने फ्रांस के लिए कौन-कौन से सुधार पारित किए?
उत्तर⇒ बास्तिल के पतन के बाद फ्रांस की क्रांति ने एक नया मोड़ ले लिया। राष्ट्रीय सभा (नेशनल एसेम्बली) ने अपना नाम बदलकर संविधान परिषद् रख लिया। अब संविधान परिषद् देश की सर्वोच्च संस्था बन गयी। परिषद् ने सामन्तवाद, बेगारी, अर्द्धदास-प्रथा, सामन्ती कर तथा नजराने समाप्त कर दिये। समानता के सिद्धांत की स्थापना की गई। मध्यकालीन समाज का पतन हो गया और सभी जगहों में एक नवीन समाज की स्थापना हुई जिसके आधार पर आधुनिक फ्रांस का निर्माण आरंभ हुआ। संविधान परिषद् ने 27 अगस्त, 1789 को “मानव और नागरिक के आधारभूत अधिकारों की घोषणा” की। इन अधिकारों में स्वतंत्रता, समानता, सम्पत्ति, सुरक्षा तथा अत्याचार के विरोध का अधिकार शामिल था। यह एक ऐसी घोषणा थी जिसका मुख्य उद्देश्य पुरातन व्यवस्था के खण्डहरों को साफ करना था । अतः संविधान परिषद् फ्रांस की शासन व्यवस्था में आमूल सुधार करना चाहती थी। इसलिए इसके साथ-साथ नागरिक अधिकारों की भी घोषणा की गई। कानून के समक्ष समता, गैर-कानूनी गिरफ्तारी से मुक्ति, सार्वजनिक पद पाने की समता तथा वैयक्तिक सम्पत्ति का अधिकार था। यह घोषणा पुरातन व्यवस्था के लिए एक महान् चुनौती थी। परिषद् ने चर्च की समस्त भूमि तथा सम्पत्ति जब्त करके उसे राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित कर दी। चर्च की सम्पत्ति की जमानत पर कागजी नोट, जिसको एसाइनेट कहा गया, प्रचलित किए।
20 सितम्बर, 1792 को फ्रांस में वयस्क मताधिकार के आधार पर राष्ट्रीय कन्वेंशन का चुनाव सम्पन्न हुआ और उसके कल होकर राष्ट्रीय कन्वेंशन का अधिवेशन प्रारंभ हुआ। फ्रांस की क्रांति अब एक नये युग में प्रवेश करने जा रही थी। राष्ट्रीय कन्वेंशन के सम्मुख तरह-तरह की समस्याएँ विद्यमान थीं । कन्वेंशन ने अपनी पहली बैठक में ही अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय लिये। सर्वप्रथम, एक प्रस्ताव स्वीकार किया गया जिसके अनुसार राजतंत्र को समाप्त करके फ्रांस में गणतंत्र की स्थापना कर दी गई। जनतंत्र के जन्म के उपलक्ष्य में नया संवत् चलाया गया। फिर लुई पर देशद्रोह के अपराध में अभियोग चलाने के लिए एक प्रस्ताव स्वीकृत किया गया। साथ ही, प्रवासी कुलीनों तथा पादरियों को आजीवन निर्वासित करने के लिए एक आदेश जारी किया गया। उसी दिन एक नया संविधान बनाने के लिए संविधान प्रारूप-समिति का गठन भी किया गया। देश के गृहयुद्ध एवं विदेशी हमले से रक्षा करने के लिए कन्वेंशन ने एक स्थायी सरकार कायम की जिसके मुख्य अंग थे— सार्वजनिक रक्षा समिति, सामान्य सुरक्षा समिति और क्रांतिकारी न्यायालय |
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